Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन

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सुभद्रा यह सूचना पाकर बहुत प्रसन्न हुई। सोचने लगी, महीने-दो महीने चहल-पहल रहेगी, गाना-बजाना होगा, चैन से दिन कटेंगे। इस उल्लास को मन में छिपा न सकी। शर्माजी उसकी निष्ठुरता देखकर और भी उदास हो गए। मन में कहा, इसे अपने आनंद के आगे कुछ भी ध्यान नहीं है। एक या दो महीनों में फिर मिलाप होगा, लेकिन यह कैसी खुश है?

सदन ने भी चलने की तैयारी कर दी। शर्माजी ने सोचा था कि वह अवश्य हीला-हवाला करेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

इस समय आठ बजे थे। दो बजे दिन को गाड़ी जाती थी। इसलिए शर्माजी कचहरी न गए। कई बार प्रेम से विवश होकर घर में गए। लेकिन सुभद्रा को उनसे बातचीत करने की फुरसत कहां? वह अपने गहने-कपड़े और मांग-चोटी में मग्न थी। कुछ गहने खटाई में पड़े थे, कुछ महरी साफ कर रही थी। पानदान मांजा जा रहा था। पड़ोस की कई स्त्रियां बैठी हुई थीं। सुभद्रा ने आज खुशी में खाना नहीं खाया।

पूड़ियां बनाकर शर्माजी और सदन के लिए बाहर ही भेज दीं।

यहां तक कि एक बज गया। जीतन ने गाड़ी लाकर द्वार पर खड़ी कर दी। सदन ने अपने ट्रंक और बिस्तर आदि रख दिए। उस समय सुभद्रा को शर्माजी की याद आई, महरी से बोली– जरा देख तो कहां हैं। बुला ला। उसने बाहर आकर देखा। कमरे में झांका, नीचे जाकर देखा, शर्माजी का पता न था। सुभद्रा ताड़ गई। बोली– जब तक वह न आएंगे, मैं न जाऊंगी। शर्माजी कहीं बाहर न गए थे। ऊपर छत पर जाकर बैठे थे। जब एक बज गया और सुभद्रा न निकली, तब वह झुंझलाकर घर में गए और सुभद्रा से बोले– अभी तक तुम यहीं हो? एक बज गया।

सुभद्रा की आंखों में आंसू भर आए। चलते-चलते शर्माजी की यह रुखाई अखर गई। शर्माजी अपनी निष्ठुरता पर पछताए। सुभद्रा के आंसू पोंछे, गले से लगाया और लाकर गाड़ी में बैठा दिया।

स्टेशन पर पहुंचे, गाड़ी छूटने ही वाली थी। सदन दौड़कर गाड़ी में जा बैठा। सुभद्रा बैठने भी न पाई थी कि गाड़ी छूट गई। वह खिड़की पर खड़ी शर्माजी को ताकती रही और जब तक वह आंखों से ओझल न हुए, वह खिड़की पर से न हटी।

संध्या समय गाड़ी ठिकाने पर पहुंची। मदनसिंह पालकी और घोड़ा लिए स्टेशन पर मौजूद थे। सदन ने दौड़कर पिता के चरण-स्पर्श किए।

ज्यों-ज्यों गांव निकट आता था, सदन की व्यग्रता बढ़ती जाती थी, जब गाँव आध मील दूर रह गया और धान के खेत की मेड़ों पर घोड़े को दौड़ाना कठिन जान पड़ा तो वह उतर पड़ा और वेग के साथ गांव की तरफ चला। आज उसे अपना गांव बहुत सुनसान मालूम होता था। सूर्यास्त हो गया था। किसान बैलों को हांकते खेतों से चले आते थे। सदन किसी से कुछ न बोला– सीधे अपने घर में चला गया और माता के चरण छुए। माता ने छाती से लगाकर आशीर्वाद दिया।

भामा– वे कहां रह गईं?

सदन– आती हैं, मैं सीधे खेतों में से चला आया।

भामा– चाचा-चाची से जी भर गया न?

सदन– क्यों?

भामा– वह तो चेहरा ही कहे देता है।

सदन– वाह, मैं तो मोटा हो गया हूं।

भामा– झूठें, चाची ने दानों को तरसा दिया होगा।

सदन– चाची ऐसी नहीं है। यहां से मुझे बहुत आराम था। वहां दूध अच्छा मिलता था।

भामा– तो रुपए क्यों मांगते थे?

सदन– तुम्हारे प्रेम की थाह ले रहा था। इतने दिन में तुमसे पचीस रुपए ही लिए न! चाचा से सात सौ ले चुका। चार सौ का तो एक घोड़ा ही लिया। रेशमी कपड़े बनवाए, शहर में रईस बना घूमता था। सबेरे चाची ताजा हलवा बना देती थीं। उस पर सेर भर दूध, तीसरे पहर मेवे और मिठाइयां। मैंने वहां जो चैन किया, वह कभी न भूलूंगा।

मैंने भी सोचा कि अपनी कमाई में तो चैन कर चुका, इस अवसर पर क्यों चूकूं, सभी शौक पूरे कर लिए।

भामा को ऐसा अनुमान हुआ कि सदन की बातों में कुछ निरालापन आ गया है। उनमें कुछ शहरीपन आ गया है।

सदन ने अपने नागरिक जीवन का उस उत्साह से वर्णन किया, जो युवाकाल का गुण है।

सरल भामा का हृदय सुभद्रा की ओर से निर्मल हो गया।

दूसरे दिन प्रातःकाल गांव के मान्य पुरुष निमंत्रित हुए और उनके सामने सदन का फलदान चढ़ गया।

सदन की प्रेम-लालसा इस समय ऐसी प्रबल हो रही थी कि विवाह की कड़ी धर्म-बेड़ी को सामने लखकर भी वह चिंतित न हुआ। उसे सुमन से जो प्रेम था, उसमें तृष्णा का ही आधिक्य था। सुमन उसके हृदय में रहकर भी उसके जीवन का आधार न बन सकती थी। सदन के पास यदि कुबेर का धन होता, तो वह सुमन को अर्पण कर देता। वह अपने जीवन के संपूर्ण सुख उसकी भेंट कर सकता था, किंतु अपने दुःख से, विपति से, कठिनाइयों से, नैराश्य से वह उसे दूर रखता था। उसके साथ वह सुख का आनंद उठा सकता था, लेकिन दुःख का आनंद नहीं उठा सकता था। सुमन पर उसे वह विश्वास कहां था, जो प्रेम का प्राण है! अब वह कपट प्रेम के मायाजाल से मुक्त हो जाएगा। अब उसे बहु रूप धरने की आवश्यकता नहीं। अब वह प्रेम को यथार्थ रूप में देखेगा और यथार्थ रूप में दिखाएगा। यहां उसे वह अमूल्य वस्तु मिलेगी, जो सुमन के यहां किसी प्रकार नहीं मिल सकती थी। इन विचारों ने सदन को इस नए प्रेम के लिए लालायित कर दिया। अब उसे केवल यही संशय था कि कहीं वधू रूपवती न हुई तो? रूप-लावण्य प्राकृतिक गुण है, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। स्वभाव एक उपार्जित गुण है; उसमें शिक्षा और सत्संग से सुधार हो सकता है। सदन ने इस विषय में ससुराल के नाई से पूछ-ताछ करने की ठानी; उसे खूब भंग पिलाई, खूब मिठाइयां खिलाईं। अपनी एक धोती उसको भेंट की। नाई ने नशे में आकर वधू की ऐसी लंबी प्रशंसा की; उसके नख-शिख का ऐसा चित्र खींचा कि सदन को इस विषय में कोई संदेह न रहा। यह नख-शिख सुमन में बहुत कुछ मिलता था। अतएव सदन नवेली दुलहिन का स्वागत करने के लिए और भी उत्सुक हो गया।

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